सुरक्षा कवच
दिव्या और विकास का प्रेमविवाह हुआ था। ज़िंदगी खुशी-खुशी सपनों से सजी हुई प्रतीत होती थी। नई-नई शादी के ये पल बाहर घूमने और मस्ती करने में बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत हो रहे थे। वैसे भी दोनों अच्छे पद पर एमएनसी में काम करते थे। नई शादी थी घर और ससुराल दोनों अलग शहर में थे। कोई रोक-टोक नहीं थी। सब आराम से चल रहा था। ऐसे करते-करते कब शादी का एक वर्ष बीत गया पता ही नहीं चला।समय के साथ उन दोनों की ज़िंदगी में नए जीवन के आगमन की आहट सुनाई पड़ी। दिव्या और विकास बहुत खुश थे। ऐसे में शुरू के तीन महीने बहुत ही ध्यान रखने के होते हैं। अपने पोता या पोती के आने की प्रतीक्षा में विकास की माताजी गायत्रीजी और पिताजी राघवजी भी बहुत खुश थी। उनको लग रहा था कि कब नन्हे कदम इस दुनिया में आएं और कब वो उसकी तोतली आवाज़ से अपना जी बहलाएं। गायत्रीजी समझती थी कि इस समय एक स्त्री का मन तरह-तरह के व्यंजन खाने को करता है। आज की पीढ़ी वैसे भी इन सब बातों में लापरवाह होती है। उनको लगा कि कुछ समय उन्हें अपने बेटे-बहू के साथ बिताना चाहिए।
बस ये सोचकर वो आ गई विकास और दिव्या के पास। शुरू के दिन तो ठीक से निकले पर थोड़े दिन बाद दिव्या को गायत्रीजी का उसकी खाने की आदतों,उसके रहन सहन पर टोकना अपनी दिनचर्या में टांग अड़ाना लगने लगा। गायत्रीजी भी ये बात समझती थी पर उन्हें लगता था किसी तरह से दिव्या के ये शुरू के तीन महीने आराम से निकल जाएं। एक दिन दिव्या के किसी दोस्त के यहां कोई पार्टी थी। गायत्री जी ने उसको थोड़ा देखभाल से खाने पीने की हिदायत दी।दिव्या ये सुनकर पहले ही थोड़ा चिढ़ गई थी,उस पर जब दिव्या ऐसी हालत में ऊंची एड़ी की चप्पल पहनकर जाने लगी तब गायत्रीजी अपने आपको रोक नहीं पाई। उन्होंने दिव्या को आरामदायक चप्पल पहनने के लिए कहा।
अब तो दिव्या का पारा चढ़ गया उसने गुस्से में बोला कि मैं बच्ची नहीं हूं,मेरे को अपना ध्यान रखना आता है।जब ड्रेस के साथ ये ही चप्पल मैच कर रही हैं तो मैं यही पहनकर जाऊंगी। वो बड़बड़ाते हुए मोबाइल में देखते हुए बाहर की तरफ जाने लगी।अचानक से बाहर की तरफ जाने वाली सीढ़ी में दिव्या की चप्पल की हील फंस गई वो अपनेआप को संभाल नहीं पाई और गिर गई। वो बेहोश हो गई। ये तो गनीमत थी कि गायत्रीजी उसके पीछे ही आ रही थी। उन्होंने तुरंत उसे सहारा दिया और एक तरफ सुरक्षित लेटा दिया। विकास को फोन किया और एंबुलेंस को फोन करके हॉस्पिटल ले गई।डॉक्टर ने कहा कि चोट ज्यादा नहीं है बच्चा और दिव्या दोनों ठीक हैं पर ऐसी हालत में सतर्कता बहुत जरुरी है।अब दिव्या को भी होश आ गया था। वो बहुत शर्मिंदा थी।उसे समझ आ गया था कि कई बार घर के बड़ों की रोक-टोक टांग अड़ाना नहीं बल्कि प्यार भरी नसीहत होती है जो अपने बच्चों का सुरक्षा कवच होती है।
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