अस्वीकृत
मैं अभी अपने अपार्टमैंट में आकर, सोफे पर बैठी ही थी कि कॉलबैल बजी। माया ने मेरे सामने पानी रखा और दरवाजे की तरफ गयी। इतनी ही देर में दोबारा कॉलबैल बजी तो मैं समझ गयी कि ये रविंद्र ही होगा, वह कई कॉल्स कर चुका था। आज इसे ज़वाब दे ही दूँ तो बेहतर है, मैंने मन ही मन निश्चय किया।
एक शादी की साइट पर पापा-मम्मी को लड़का सही लगा तो उन्होंने उसकी प्रोफाइल मुझे भेजी थी। मेरे ओके करने पर पापा ने ही उसे मेरा नम्बर दिया था, बात करने के लिये। उसने मिलने के कहा तो मैं उससे मिली थी। देखने और व्यवहार में मुझे सही लगा तो मैंने और परखने का फैसला किया, उसे भी इससे मुझे जानने का मौका मिल जाता। बाद की मुलाकात में उसने चालाकी से मेरे अपार्टमैंट का पता ले लिया। अहसास होने पर मैंने कहा कि यह केवल एमरजैंसी के लिये है। लेकिन वह मेरे फ्लैट में मिलने की बात करने लगा तो मैंने वहाँ मिलने से स्पष्ट मना कर दिया। फिर वह मुझे लगातार कॉल्स/मैसेजेज़ करने लगा।
रविंद्र दनदनाता हुआ अंदर दाखिल हुआ और गुस्से से मेरी तरफ देखते हुए बोला—
“तुम मेरी कॉल्स क्यों नहीं लेती हो?”
“अरे ऑफिस में ‘पर्सनल कॉल्स’ नहीं ले सकती, आपको पहले भी बता चुकी हूँ मैं!” मुझे उसके कहने में ज़िद स्पष्ट दिखी।
“तुम्हें मुझमें और, किसी और में कोई फ़र्क नहीं लगता?” अब उसने अधिकार जताना चाहा तो मैं झुंझला गयी।
“और आपको घर और ऑफिस में कोई फ़र्क नहीं लगता?”
“ऑफिस तो तुम्हें वैसे भी छोड़ना ही है न, शादी के बाद,” उसने ढीठता से मुस्कुराने की कोशिश की।
“माफ करना, रविंद्र जी। मुझे आपसे शादी नहीं करनी। मुझे एक जीवन-साथी चाहिये, जो मुझे समझ कर अपनी बात करे; न कि अपनी मर्ज़ी और ज़िद मुझ पर थोपने वाला जीवन-नियंत्रक।“
रविंद्र अपलक मुझे देखता रहा, फिर पलटा और बोझिल कदमों से बाहर निकल गया। माया मुझे ऐसे देख रही थी जैसे दुनियाँ का आठवाँ अज़ूबा देख लिया हो।