प्लीज़! नहीं जाना मुझे कोचिंग करने के लिये कोटा । मैं इन्जीनियरिंग की पढ़ाई नहीं कर पाऊंगा।
पापा अब भी मेरी बात मान जाइये एक बार फिर से सोच लीजिये" विकास बार बार अपने पापा के सामने गिड़गिड़ा रहा था ।
"इसमें सोचना क्या है बेटा! मैंने तो तभी सोच लिया था जब तू पैदा हुआ था, कि बडा़ होकर तुझे इन्जीनियर ही बनाऊंगा, आई आई टी में ही भेजूंगा " ।
" लेकिन पापा मैं भी तो कितनी बार कह चुका हूं कि मुझे होटल मैनेजमेंट ही करना है "।
" अरे बेटा चार दिन को तेरी मां बीमार क्या हुई, किचिन में जाकर ब्रैड चाय बना लाने से तेरे सिर पर तो शैफ बनने का भूत ही सवार हो गया। उठ! बैग चैक कर ले, सब सामान ठीक से रख लिया है या नहीं, और चल जल्दी कहीं ट्रेन छूट न जाये "।
रंजन बाबू बेटे के साथ ट्रेन के इन्तजार में स्टेशन पर बैठ कर मैग्जीन पढ़ रहे थे कि नजर कोटा कोचिंग पर लिखे एक लेख पर पड़ी।
लिखा था _ परिवार के द्वारा पढा़ई के भारी दबाव, परीक्षा का तनाव व घर वालों से दूर रहने से, डिप्रेशन में आकर प्रति वर्ष आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही है। जहां पिछले वर्ष 30 छात्रों नेआत्महत्या की थी, वहीं इस वर्ष 49 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया। लेख में आत्महत्या के अन्य भी बहुत से कारण लिखे थे।
लेख पढ़ते हुए रंजन बाबू के माथे पर पसीने की बूंदे तैर गयीं।
' कहीं मैं भी तो अपने ही हाथों से... नहीं नहीं ' घबरा कर रंजन बाबू ने बोतल से पानी की दो बूंद गले से उतारीं, मन कुछ शान्त हुआ। तब तक प्लेटफार्म पर कोटा जाने वाली ट्रेन भी धड़धडाती हुई पहुंच चुकी थी।
रंजन बाबू झटके से खड़े हुए और एक हाथ में सूटकेस और दूसरे से बेटे की बांह कस के पकड़ ली और लगभग दौड़ते हुए स्टेशन से बाहर निकल गये।
बेटा भौचक्का सा कुछ समझ नहीं पा रहा था। "चल बेटा वापस घर चल! तेरी इच्छा के बिना मैं तुझे कहीं नहीं भेजूंगा तेरी जो इच्छा हो तू वही पढ़ेगा।
सुनीता त्यागी गाजियाबाद
( लघुकथा को शेयर करने वाले पाठकों से विनम्र निवेदन है कि कथा से रचनाकार का नाम न हटायें)
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