यह अमेरिका में बेटे की यूनिवर्सिटी का अपना प्राइवेट स्टेडियम है. स्टेडियम की कैपेसिटी 66,000 है. अमेरिका में जनसंख्या कम होती है. जिस शहर में यूनिवर्सिटी है उसकी कुल जनसंख्या 45,000 है.
यूनिवर्सिटी की टीम जिस शुक्रवार मैच खेलने वाली होती है, अग़ल बग़ल के शहर दूर दराज हज़ार किमी तक के लोग गाड़ी ड्राइव कर आ जाते हैं. स्टेडियम फ़ुल हो जाता है तो बाहर रोड पर पांडाल में बियर पीते हुवे मैच देखते हैं लोकल यूनिवर्सिटी टीम को चीयर करते हैं. उस दिन सौ किमी दूर तक बच्चे बूढ़े और जवान केवल और केवल लोकल यूनिवर्सिटी टीम का मैच देखते हैं. ऐसा केवल बेटे की यूनिवर्सिटी वर्जीनिया टेक में ही नहीं है बल्कि लगभग सभी बड़ी यूनिवर्सिटी के शहरों का यही हाल है.
हम अक्सर बात करते हैं भारत में खिलाड़ियों को पैसे नहीं मिलते. बेटे की यूनिवर्सिटी जो टेक्नोलॉजी क्षेत्र में मशहूर है वहाँ से भी कई बच्चे ओलंपिक में अमेरिका का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर गोल्ड मेडल जीत जाते हैं तो सरकार देती है 37,000 डालर. रुपये में भी कन्वर्ट कर लो तो पचीस लाख रुपये. इसकी तुलना में भारत में दसियों गुना पैसा दिया जाता है मेडल जीतने पर. जो छात्र ओलंपिक में मेडल जीत जाता है यूनिवर्सिटी उसे पारितोषिक में उसके क्लास के पास वाली पार्किंग में कार पार्क करना फ्री कर देती है - बस इतना ही. लेकिन फिर भी वहाँ लोग मेडल लाते हैं, यूनिवर्सिटी के छात्र तक मेडल लाते हैं.
स्पोर्ट्स कल्चर सरकारें नहीं बनातीं, पब्लिक बनाती है.
आप स्वयं बताइए पचीस साल प्लस की आयु में कितने लोग हैं जो कोई न कोई खेल खेलते हैं? स्वीमिंग, फुटबॉल, रनिंग, क्रिकेट ही सही - कितने प्रतिशत हैं जो ज्यादा नहीं रविवार को ही मैच खेलने जाते हैं? मैं चैलेंज कर सकता हूँ नंबर एक प्रतिशत भी न आएगा. जब आप स्वयं नहीं खेलते तो दूसरों को खेलने के लिये प्रोत्साहित कैसे कर पायेंगे.
और खेल कभी इस लिए नहीं खेलना चाहिए कि सरकार पुरुष्कार देगी या जीत जाएँगे. कोई भी खेल - रनिंग या साइकिलिंग ही सही, खेलते हैं तो आप स्वस्थ रहते हैं, शारीरिक भी और मानसिक भी. इससे बेहतर और क्या पुरुष्कार हो सकता है.
घर से बाहर निकलिए. कोई एक आउटडोर एक्टिविटी का शौक़ अवश्य रखिए. तभी आप फिट रहेंगे और आपको पता ही है कि फिट है तो हिट है.