रोज़ की तरह आज भी मैं सुबह जल्दी उठ गई थी। घर के काम निपटाने के बाद, मैं नहाने चली गई। ठंडी पानी की धार मुझे ताज़गी का एहसास दिला रही थी, जब अचानक दरवाजे पर किसी की आवाज़ आई।
"मैडम जी, रोटी मिल जाएगी?"
रोज़ की तरह वही जानी-पहचानी आवाज़ थी। मैं जानती थी कि यह कौन थी—एक बुजुर्ग महिला, जिसे मैं कई महीनों से रोज़ दो रोटियाँ दे रही थी। लेकिन इस वक्त मैं पूरी तरह नहाने में व्यस्त थी, इसलिए कोई जवाब नहीं दे पाई।
कुछ पल बाद फिर आवाज़ आई—इस बार थोड़ा ज़ोर से।
"मैडम जी!"
मैं अब भी नहीं बोल सकी। फिर तीसरी, चौथी बार आवाज़ आई, और फिर... सन्नाटा।
मुझे लगा कि वह शायद इंतज़ार करके चली गई होगी। लेकिन अचानक, दरवाजे पर तेज़ धमक की आवाज़ आई। जैसे कोई पूरी ताकत से खटखटा रहा हो। मुझे अजीब सा लगा। इतनी बेचैनी क्यों?
मैं जल्दी-जल्दी नहाकर निकली, हाथों से पानी झटकते हुए रसोई की तरफ भागी। रोटियाँ उठाईं और दरवाजे की ओर बढ़ी।
दरवाजा खोलते ही जो देखा, उसने मुझे अंदर तक हिला दिया।
वह बुजुर्ग महिला थी—पर उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। उसकी आँखों में चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं। जैसे किसी अनहोनी का डर उसे घेर चुका हो।
"मैडम जी, आप ठीक तो हो ना?" उसकी काँपती आवाज़ में सच्ची फिक्र थी।
मैं थोड़ा चौंक गई। "हाँ, मैं ठीक हूँ। क्यों? क्या हुआ?"
वह रुआंसी होकर बोली, "आप तो रोज़ आवाज़ देते ही रोटी ले आती हो, आज इतनी देर हो गई और आपने कोई जवाब नहीं दिया। मुझे लगा कुछ गड़बड़ है। गेट खुला था, सोचा अंदर देखूँ, पर डर था कि कोई देख ले तो चोर समझेगा।"
यह कहते हुए उसने राहत की साँस ली और मेरी ओर देखा, जैसे यह पक्का कर लेना चाहती हो कि मैं सच में ठीक हूँ।
उसकी चिंता ने मेरे मन को भीतर तक छू लिया। यह वही महिला थी, जिसे मैं कभी बस दो रोटियाँ दे देती थी। हमारी बातचीत भी नाममात्र की थी। फिर भी, उसने मेरे लिए इतनी फिक्र क्यों की?
मैं कुछ कह पाती, इससे पहले ही उसने मेरी हाथों में रोटियाँ देख लीं और चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गई। उसने जैसे कोई बड़ी जंग जीत ली हो। रोटियाँ थामते हुए वह बोली, "कभी कुछ ना हो आपको, मैडम जी।"
इतना कहकर वह चली गई। पर मैं वहीं दरवाजे पर खड़ी रही, उसे जाते हुए देखती रही।
आज पहली बार मुझे एहसास हुआ कि मेरे इस छोटे से कर्म ने मेरे और इस अनजान महिला के बीच एक अनदेखा रिश्ता बुन दिया था। यह सिर्फ रोटी देने का रिश्ता नहीं था—यह अपनत्व, फिक्र और परवाह का रिश्ता बन गया था।
उस दिन मैंने महसूस किया कि इंसान की छोटी-छोटी दयालुताएँ दूसरों के लिए कितनी बड़ी हो सकती हैं। जिस काम को मैं सिर्फ अपनी दिनचर्या का हिस्सा मानती थी, वही किसी के लिए उम्मीद की किरण बन गया था।
यही सच्चाई है—मन से किया गया हर अच्छा काम, किसी न किसी रूप में हमें वापस लौटकर ज़रूर मिलता है।