शादी के तीसरे दिन ही पीरियड्स।
परीक्षाएं सिर पर थीं, और मैं पूरी रात सो नहीं पाई थी। मन में बस एक ही सवाल घूम रहा था — इतनी बड़ी जिम्मेदारी के बीच मैं परीक्षा कैसे दूंगी? सुबह होते ही रितु मुझे जगाने आ गई। वह बोली, "बहुत मेहमान हैं, सबके उठने से पहले नहा लो। नहीं तो आंगन में भीड़ हो जाएगी और गीले बाल लेकर सबके सामने नहीं जा पाओगी।" मैं चुपचाप उठी, नहाकर कमरे में लौटी और फिर से किताबों में डूब गई।
बीच-बीच में महिलाएं "मुंह-दिखाई" के लिए आती रहीं। कोई कुछ नोट देती, कोई सिक्के — पर मेरा ध्यान सिर्फ किताबों पर था। घड़ी देखी तो साढ़े आठ बज चुके थे। नौ बजे परीक्षा के लिए निकलना था, लेकिन मैं अब तक तैयार नहीं हुई थी।
मैंने साड़ी उठाई और आईने के सामने खड़ी हो गई। पर जैसे ही बांधना शुरू किया, उलझनें शुरू हो गईं। बार-बार कोशिश करने पर भी साड़ी ठीक से नहीं बंधी। आखिरकार थककर मैं रुआंसी होकर बैठ गई। मन में अम्मा की बात गूंजने लगी, "शादी मत कर, पहले इम्तिहान दे ले।" पर किसी ने मेरी बात नहीं मानी थी। जैसे ही अच्छा लड़का मिला, मुझे ब्याह दिया गया — मानो मैं कोई ज़िम्मेदारी थी, जिसे पूरा करना ज़रूरी था।
आँखों से आंसू बह निकले। फिर भी खुद को संभालने की कोशिश की। तभी पति कमरे में आए और बोले, "तैयार नहीं हुई? गाड़ी आ गई है, जल्दी करो।" मैंने फिर से साड़ी बांधने की कोशिश की। तभी सासु माँ कमरे में आईं। मेरी हालत देख उन्होंने बिना कुछ कहे बाहर जाकर रितु को आवाज दी।
कुछ देर बाद, वे लौटकर आईं और अपनी बेटी का सूट-सलवार मुझे पकड़ा दिया। बोलीं,
"बेटा, ये पहन लो। माथे पर ओढ़नी रख लेना। आज कोई कुछ कहे, तो कल जब तू मास्टरनी बनेगी, सबके मुँह बंद हो जाएंगे।"
उनकी बातों में जो अपनापन और हौसला था, उसने मेरे अंदर एक नई ताकत भर दी। मैंने उनकी ओर देखा, वो मुस्कुराईं और मेरे सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। आंखों में आंसू थे, लेकिन अब दिल में हिम्मत थी।
मैं तैयार होकर कमरे से निकली, तो देखा — मेरे पति मुस्कुरा रहे थे। उनकी आंखों में गर्व था।
क्या फायदा ऐसे रिवाजों का जो बेटियों और बहुओं की उड़ान रोकते हैं?
उस दिन मैंने जाना कि जब परिवार साथ खड़ा हो, तो हर मुश्किल राह आसान हो जाती है।
सासु माँ की समझदारी और समर्थन ने सिखाया — सपनों को पंख तभी मिलते हैं, जब घर से उड़ान की इजाज़त मिले।