*बहू से बन गयी बेटी*
रोज सुबह घूमने जाने वाले सम्पत जी आज अभी तक सो रहे थे । उनकी बहू ने यह सोचा कि उनकी तबीयत ठीक नही होगी । कमरे की सफाई के दौरान बहू के हाथ से तिपाई पर रखा उनका चश्मा फर्श पर गिर गया । जिसे फिर तिपाई पर रखते समय उसने देखा कि चश्मे के दोनों काँच फ्रेम में नहीं है । जबकि कल रात खाना खाते वक्त उनके चश्मा लगा हुआ था । एक नये खर्च की आगत जान कर उसे ससुर पर गुस्सा तो आया, पर उसने उसे दबा लिया और अपने काम में लग गयी ।
पचहतर साल के सम्पत जी का बेटा हृदयाघात से भरी जवानी में चल बसा । उसके साल भर बाद ही कैन्सर पीड़ित उनकी पत्नी परलोक सिधार गई । उसके ईलाज पर उनकी सारी जमा पूँजी खर्च हो गई और वे गरीब की श्रेणी में आ गये । रह गई विधवा बहू और वे । जवानी में विधवा हो जाने के महादुःख ने बहू को बहुत गुस्सैल बना दिया था । वे खुद बीमारी के कारण कुछ रोजगार करने की स्थिति में नहीं थे । उन्हें सरकार से मात्र तीन सौ रुपये पेंशन मिलती थी, जो उनकी दवाइयों पर खर्च हो जाती थी । उनकी बहू सिलाई कर के घर की गाड़ी अकेली खींच रही थी । कल सुबह सैर से लौटते समय वे ठोकर खा कर गिर गये थे और चश्मा झटके से निकल कर वहाँ पड़े पत्थर से जा टकराया था, जिससे चश्मे के दोनों काँच चकनाचूर हो गये थे । उन्होंने चश्मे का फ्रेम उठा कर पहन लिया । उन्हें अपनी गुस्सैल बहू का डर जो सता रहा था । चार दिन पहले उसके हाथ से काँच का गिलास गिर कर टूटने पर उसे बहू से बड़ी डांट पड़ी थी । उसे पता था कि चश्मे के टूटने का पता लगने पर उन्हें खूब डांट पड़ेगी । इसलिए उन्होंने फ्रेम को ही पहन लिया । उन्होंने सोचा कि दो दिन बाद पेंशन मिलने पर नये काँच लगवा लेंगे और बहू को कांच टूटने का पता नहीं चलेगा । वे अपनी दवाई आधी ही खरीद लेंगे ।
नित्यकर्म से निवृत होकर वे चाय का इंतज़ार कर रहे थे । बहू ने देखा कि वे बिन काँच का चश्मा लगाये बैठे हैं । बहू ने पूछा, "बाबूजी, आपने बिन काँच का चश्मा क्यों लगा रखा है ?"वे हड़बड़ा गये । उनसे बहू के इस अप्रत्याशित प्रश्न का उत्तर देते नहीं बन पड़ा | वे घबराहट के मारे हकलाने लगे । उनकी घबराहट से बहू का दिल पसीज गया ।
उसने अपना स्वर नर्म करते हुए कहा, "बाबूजी,डरो नहीं, मैं आपकी दुश्मन नहीं हूँ । मुझे बताओ, आपका चश्मा कब और कैसे टूटा ?" वे बोले, "कल सैर से लौटते वक्त ठोकर खाकर मेरे गिरने से चश्मा निकल कर पत्थर से टकरा गया था तो दोनों काँच टूट गये" बहू ने फिर पूछा, "फिर चश्मे के फ्रेम को आप दिन भर क्यों लगाये रहे ?"
वे बहुत ही झिझकते हुए बोले, "चश्मा टूटने का पता लगने पर पड़ने वाली तुम्हारी डांट से बचने के लिए ।"
बहू ने फिर पूछा, "आप इस बात को कब तक मुझ से छिपाये रखते ? एक दिन तो मुझे पता लगना ही था ।"
वे बोले, "दो दिन बाद जब मुझे पेंशन मिलती तो अपनी दवाई आधी खरीद कर बचे रुपयों से चश्में के काँच लगवा लेता और तुम्हे पता ही नहीं चलता ।"
उनकी मासूमियत भरी बातें सुन कर बहू भावुक होकर उनसे लिपट कर बोली, "अरे आप मेरे से इतने डरते हो । मैं तो आपकी बेटी जैसी हूँ । मेरे पिता इस दुनिया में नहीं है । अब आप ही मेरे पिता की जगह है । इस घर में हम दो ही तो प्राणी हैं । यदि हम एक-दूसरे का सुख-दुःख नहीं बाँटेगे तो हमारा जीवन कैसे बीतेगा ?"
बहू का यह दयालू रूप देख कर उन्होंने कहा, "तुम मेरी बेटी जैसी हो तो मैं तुम्हारे पिता जैसा हूँ । पिता अपनी बेटी के भविष्य का भी ख्याल रखता है । बेटी, मेरे जीवन का संध्याकाल चल रहा है और मैं बीमार भी हूँ । मेरी मौत कभी भी आ सकती है । मैं तुम्हारे मानस पिता की हैसियत से तुम्हे दूसरा विवाह कर लेने की नेक राय देता हूँ ।"
बहू प्यार भरे गुस्से से बोली, "मैं इतनी भी स्वार्थी नहीं हूँ कि अपने सुख के खातिर अपने मानस पिता को इस हाल में अकेला छोड़ दूं ।"
वे बोले इसका मतलब यह हुआ कि यदि विवाह के बाद तुम्हें मुझे छोड़ना नहीं पड़े तब तो तुम्हे दूसरा विवाह करने में कोई एतराज नहीं है । बेचारा विवेक मुझे कई दिन से तुमसे विवाह की बात चलाने को कह रह था पर, तुम्हारे गुस्से के डर से मेरी हिम्मत ही नहीं हुई । बेचारे के माँ-बाप व पत्नी की मृत्यु पिछले साल तीर्थ यात्रा से लौटते समय एक सड़क दुर्घटना में हो गयी । वह भी बच गया और उसका दूधमुंहा बच्चा भी । तुम अगर विवेक से शादी कर लोगी तो बेचारे बिन माँ के मासूम बच्चे को माँ की ममता मिल जाएगी और तुम्हे और विवेक को नया जीवन साथी| विवेक मुझे भी रखने को तैयार है ।"
बहू बोली, "अब जब आप मेरे पिता बन चुके तो आपकी अवज्ञा मैं कैसे कर सकती हूँ ? पर पहले अपने इस टूटे चश्मे में काँच तो डलवाओ ।" उसने उन्हें सौ रुपये देते हुए कहा । उन्होंने कहा, "मैं काँच डलवा कर विवेक को यह खुशखबरी सुनाने तथा विवाह की रस्म आज ही पूरी करने के लिए कहता हूँ और आते वक्त शास्त्री जी को भी बोल देता हूँ । शुभ काम में देरी क्यों ?" सम्पत जी ने अपनी समधन शांति जी को भी बुलवा लिया । शाम तक विवेक अपने बच्चे के साथ पहुँच गया | समधन और शास्त्री के पहुँचते ही शादी की रस्म बिना किसी ताम-झाम के घंटे भर में सम्पन हो गयी । शास्त्री जी ने शगुन के तौर पर केवल ग्यारह रुपये ही दक्षिणा ली, यह कह कर कि यह आदर्श शादी करवा कुछ पुण्य उन्होंने भी तो कमाया है ।
वे जाने लगे तो बहू ने उन्हें रोकते हुए कहा, "शास्त्री जी,अभी एक शादी और करवानी है ।" उन्होंने पूछा ,"किसकी ?" बहू बोली, "मेरी विधवा माँ और विधुर मानस पिता की ।" बहू की बात सुन कर सम्पत जी हक्के-बक्के होकर अपनी मानस पुत्री को आश्चर्यचकित होकर देखने लगे । वे बोले, "तुमने इतना बड़ा फैसला मुझे बिना पूछे कैसे ले लिया ?" वो बोली, "जब मैं आपका कहा मानकर दूसरी शादी कर सकती हूँ तो आप मेरी बात कैसे टाल सकते हैं ? आप मेरे मानस पिता तो पहले ही बन चुके हैं । अब मैं आपको अपनी माँ का जीवनसाथी बना कर बाप-बेटी का यह नया रिश्ता पक्का करना चाहती हूँ ।"
वे बोले, "पर अपनी माँ को तो पूछ लिया होता कि उसे यह शादी मंजूर है या नहीं ।" वो बोली,"यह मैं आपके सामने अब पूछ लेती हूँ ।" वो अपनी माँ से बोली, "माँ, मेरे सगे पिता तो अब मुझे नहीं मिल सकते । क्या तुम यह शादी करके मुझे नये पिता के प्यार से वंचित रखना चाहोगी ?"
माँ भावुक होकर बोली, "बेटी ख़ुशी, तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है । मुझे मालूम था कि तुम्हें मेरा अकेलापन खटकता है । पर तुम मजबूर थी । आज तुम्हे मेरा अकेलापन दूर करने का मौका मिल गया । तुम दुनिया की पहली बेटी हो जो अपनी माँ की शादी करवा रही हो । तुम अपने नाम के अनुकूल दूजों को खुशी बाँटती हो |" माँ के इतना कहते ही खुशी खुशी के मारे बच्चे की तरह उछल पड़ी । उसने अपनी माँ का हाथ अपने मानस पिता के हाथ में देकर उन्हें शादी की रस्म हेतु बैठा दिया । घंटे भर में वो दूसरी शादी भी सम्पन्न हो गयी । जब शास्त्री जी दूसरी शादी की दक्षिणा लिये बिना ही जाने लगे तो खुशी ने कहा, "शास्त्री जी, दक्षिणा तो लेते जाओ ।" शास्त्री जी बोले, "एक शादी पर दूसरी मुफ्त ।"और उनकी इस बात पर दोनों नव दम्पति खुल कर हँस पड़े । बहुत समय बाद उन्हें यह हँसी नसीब हुई थी । इन दो शादियों से जहाँ चार लोगों को नया जीवन साथी मिला वहाँ एक छोटे बच्चे को मिली नयी माँ । बच्चा वैभव अपनी नयी माँ की गोद में बैठ कर मीठी तुतलाती बोली में बातें करके सबको खुश कर रहा था । एक छोटी सी घटना ने एक गुस्सैल बहू को प्यारी बेटी में बदल दिया । अब उस घर में सम्पत, शांति व खुशी के साथ विवेक और वैभव भी था । नजर क्या बदली नजारे ही बदल गये ।